Dusri paari

मई महीने की ढेर गर्म दोपहरी में इंसानों के साथ- साथ इमारतें भी भट्टी बन गई थीं। मौसम की तल्खी यथावत जारी थी। दो-चार लोगों से पता पूछने के लिए गाड़ी का शीशा नीचे किया ही था उसी में विवेक के माथे का पसीना किसी बंद नल से रिसते पानी की बूंदो की तरह टप-टप बहने लगा। सामने अपने गंतव्य स्थान को देखकर विवेक ने अपने चेहरे से पसीना साफ किया। गाड़ी पाॄकग में खड़ी की और पुरानी इमारत में बने बड़े से हॉल में जाकर खड़ा हो गया।

हॉल में उस समय तकरीबन पचास लोग होंगे। सामने लगा बैनर सब लोगों के वहां एकत्रित होने की वजह बता रहा था। जिस पर बड़े-बड़े शब्दों में लिखा था, ‘दूसरी पारी’ (विधवा, विधुर, तलाकशुदा युवक-युवती परिचय सम्मेलन) वो ही जगह, जहां दो दिल टूटे, घर टूटे लोगो का मिलन करवाने का शुभ कार्य किया जाता है।

हॉल में आदमियों में ज्यादा खाली कुॢसयां थी। सामने एक बड़ा सा स्टेज लगा था। जहां इच्छुक युवक-युवतियां (वैसे उन सब को आदमी, औरतें कहना कदापि अनुचित नहीं होगा) अपना परिचय दे रहे थे। वह तो विवेक के पापा ने मिस्टर शर्मा से ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवा दिया था, वरना विवेक यहां कभी नहीं आता। मिस्टर शर्मा को देख विवेक ने औपचारिक हंसी हसी। विवेक सबसे आखिर से एक पहली लाइन में जाकर बैठ गया। विवेक ने मोबाइल स्क्रीन पर आवश्यकता से ज्यादा आंखें गड़ाई हुई थी ताकि इस बोझिल समय को अच्छे से काट सके।

विवेक फोन में गेम खेलने में व्यस्त था। एकाएक अपने पीछे से उसको कुछ आवाज सुनाई दी। उसने आंखें फोन में गड़ाए रखी पर कानों की सुनने की शक्ति तेज कर दी। दो युवतियों की आवाज़ उसको सुनाई दी। जो बातों से बहने प्रतीत हो रही थीं, ‘दीदी आप भी जाओ ना स्टेज पर अपना परिचय देने।’ ‘चुप होकर बैठ जा, तुझे पता है ना मैं यहां मम्मी-पापा की वजह से आई हूं। एक घंटा काटना है, चुपचाप काट ले।’ उनकी बातें सुन विवेक मन ही मन मुस्कुरा उठा। इतने में विवेक का फोन बजने लगा। ना चाहते हुए भी उसको मां से झूठ बोलना पड़ा। ‘हां मां, मैंने परिचय दे दिया है अपना, कोई लड़की खास पसंद नहीं आई मुझको। घर आकर बात करता हूं।’

मां की बात अधूरी छोड़ विवेक ने फोन रख दिया। पीछे बैठी छोटी युवती विवेक की बात सुनकर हंस पड़ी। ‘लगता है दीदी यह जनाब भी आपकी तरह जबरदस्ती भेजे गये हैं।’

‘चुप कर छुटकी, कुछ भी बोलती है।’ बड़ी बहन ने छोटी बहन को डपट दिया। ‘अरे इन्हें मत गुस्सा कीजिए, मैं यहां जबरदस्ती ही आया हूं और शायद आप भी?’ विवेक एकाएक बोल पड़ा।

विवेक ने पीछे मुड़कर एक नजर बड़ी युवती पर डाली। एक शांत और गंभीर व्यक्तित्व, बालों का कसा हुआ जूड़ा। मजाल है एक बाल भी बिना अनुमति के इधर से उधर होने की हिम्मत कर पाये। बिना लाली लिपस्टिक और बढ़ती झुर्रियों का चेहरा बड़ी युवती का हाल बयां कर रहा था। हां, पर नया सलवार सूट देख कर ऐसा लग रहा था मानो घरवालो ने जबरदस्ती अच्छे कपड़े पहनवा कर भेजा हो। वैसे विवेक की हालत भी ऐसी ही थी। मां ने जबरदस्ती ही तो सफेद लीलन की नई शर्ट पहना कर भेजा था, पर दाढ़ी और बालों में से झांकते  सफेद बाल उसकी उम्र बयां कर रहे थे।

‘सुनीता दीदी, आपको आपकी कैटेगरी का कोई मिल गया, अभी बताती हूं मां को।’

‘चुप कर मार खाएगी।’

‘माफ कीजिएगा इसकी आदत है फालतू बात करने की।’ विवेक फिर हंस पड़ा।

परिचय समारोह खत्म हो चुका था। घर वालों को कोई भी अच्छा जीवन साथी ना मिलने का बहाना मन में सोच, सुनीता और विवेक अपने-अपने घर की ओर रवाना हो गए। एक दिन विवेक के पापा उसके पास आए और बोलने लगे, ‘बेटा मेरा दोस्त है ना गिरधारी, आज उसकी बेटी की सगाई है, हमको सह परिवार बुलाया है। शाम को 4:00 बजे तैयार रहना।’ बेमन से ही सही विवेक सगाई में जाने के लिए तैयार हो गया। पर ना जाने आज विवेक को अपने माता-पिता का व्यवहार अजीब लग रहा था। मानो वह किसी कशमकश में हो। आखिरकार विवेक से रहा नहीं गया। उसने पूछ ही लिया, ‘मां-पापा आज आप लोग नॉर्मल बिहेव क्यों नहीं कर रहे? कुछ हुआ है क्या?’

‘दरअसल बेटा हमने तुझसे झूठ बोला था। हम किसी सगाई में नहीं जा रहे। हम तेरे लिए एक लड़की देखने जा रहे हैं। नाराज मत होना। तुझे इसलिए नहीं बताया क्योंकि तुम मना कर देते।’ मां ने एक लंबी सांस में अपनी बात कह दी। उनको इस परिस्थिति का पूर्वानुमान था।

विवेक ने गाड़ी रोक दी। इस नासमझी की उसको अपने माता-पिता से बिल्कुल भी उम्मीद नही थी। मां ने अपने आंसुओ से ऐसा अमोघ बाण चलाया जो सीधा विवेक के दिल पर जा कर लगा। माता- पिता अपनी बात मनवाने में सफल रहे! तीन मंजिला बने ‘होटल डिलाइटÓ की पाॄकग में विवेक ने अपनी गाड़ी लगा दी। होटल के एक मीटिंग हॉल में विवेक की फैमिली की एंट्री हो गई। परिचय सम्मेलन की तरह विवेक ने यहां भी फोन पर आवश्यकता से अधिक नजरें गड़ाए हुई थी। कदमों की चहलकदमी सुन विवेक ने अपनी नजरें ऊपर उठाई तो वह सन्न रह गया। सामने सुनीता थी। विवेक और सुनीता एक दूसरे को आश्चर्यचकित नजरों से देखने लगे। दोनों परिवारजनों  के बीच औपचारिक कुछ अनौपचारिक बातें हुई। विवेक और सुनीता को बात करने के लिए होटल के लॉन में भेज दिया गया। दोनों बड़े देर से लॉन में घूम रहे थे। कब से उनके बीच बस चुप्पी पसरी हुई थी। दोनो के बीच इस मौन ने स्थिति को और जटिल बना दिया। चुप्पी तोड़ते हुए विवेक ने बात शुरू की। ‘आपको पता था सुनीता जी, हमारे रिश्ते की बात चल रही है?’

‘मुझे तो मम्मी-पापा ने रास्ते में ही बताया।’

‘मेरा भी कुछ यही हाल समझ लीजिए।’

‘लगता है ये शर्मा अंकल के दिमाग की उपज है। उन्होंने ही परिचय सम्मेलन में हमको बात करते देखा था।Ó विवेक अपने दिमाग के सारे घोड़े दौड़ाकर इस रिश्ते की असली वजह तलाशने लग गया।

‘हम्म…, मम्मी-पापा ने भी जिद पकड़ रखी है मेरा घर दोबारा बसाने की।’

‘टूट कर कांच कभी सिमटा है भला?’

‘ना जाने क्यों इतना परेशान रहते हैं मेरे लिए?’

‘शायद उनकी घटती और मेरी बढ़ती उम्र उनकी परेशानी का सबब है।’

‘हमारा समाज भी तो ऐसा है, जहां अकेली औरत को बेचारी का दर्जा दे दिया जाता है।’ विवेक शांत चित जमीन पर आंखें गड़ाए सुनीता की बातें सुनता रहा। सुनीता को सांत्वना देते हुए बोला, ‘मैं आपकी मनोस्थिति अच्छे से समझ सकता हूं। पिछले 5 साल से मैं जो गुस्सा, दुख और अपमान झेल रहा हूं, उसने मुझको अंदर तक थका दिया है। मेरी पूर्व पत्नी जाते-जाते मेरी मर्दानगी पर प्रश्नचिन्ह लगा गई।

शादी के एक हफ्ते बाद ही अपने मायके चली गई यह कहकर कि उसका पति नपुंसक है, जबकि हमारे बीच पति-पत्नी का रिश्ता बना भी नही था। इस नपुंसक के दाग ने मेरे अस्तित्व को बिल्कुल बिखेर कर रख दिया है। म्यूच्यूअल कंसल्ट के तहत हमारा तलाक हुआ। मैं तलाक नहीं देता तो वह मेरे नपुंसक होने की अफवाह पूरे शहर में फैला देती। मेडिकल रिपोर्ट दिखाकर किस-किस का मुंह बंद करता।’ विवेक की आंखों में एक बड़ा असहाय भाव उतर आया।

कितना दुख होता है ना विवेक जी, जब आपका कोई अपना आपको जिंदगी भर का दुख दे जाए। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। मैंने तो लव मैरिज की थी। 5 साल से जानती थी उसको, पर शायद पहचान नहीं पाई। उसके घर वालों को खासकर उसकी मां को मैं पसंद नहीं थी। एक दिन देवर के साथ मेरे नाजायज संबंध बता कर मुझे चरित्रहीनता का तमगा देकर उसके घरवालों ने मुझे बाहर निकाल दिया, जिसके लिए मैंने अपने मां-बाप की नाराजगी झेली, इतना अपमान सहा। वह मेरा महान पति मेरा साथ ना दे कर अपने घर वालों के रंग में रंग गया। मैंने फिर उसको पलट कर नहीं देखा। उसने दूसरी शादी कर ली है। उसकी शादी की खबर सुनते ही मम्मी-पापा मेरी दूसरी शादी की कोशिश में लगे हुए हैंं

तब से ही यह देखने, दिखाने, दूसरी शादी का ड्रामा मेरी जिंदगी में शुरू हो चुका है। अमूमन जिस स्थिति में दो लड़का लड़की मिलकर अपने भावी जीवनसाथी की परख करके अपने सुखद वैवाहिक जीवन की कल्पना कर रहे होते हैं, उसी स्थिति में आज यह दोनों अपने अतीत की दु:खद घटना को याद करते हुए आंखें सजल कर रहे थे।

विवेक और सुनीता ने आपसी सलाह मशवरे से इस रिश्ते को ना करने का मन बना ही लिया था। इतने में छुटकी वाह मैरिज काउंसलर की भूमिका अदा करते हुये आई।

‘दीदी और विवेक जी, मैंने आपकी सारी बातें सुन ली है। मुझे पता है आप दोनों इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हैं, पर क्या अतीत को भुलाकर आप दोनों एक नई शुरुआत  नहीं कर सकते? जिंदगी हर बार दगा दे यह जरूरी तो नहीं? वैसे भी इस रिश्ते के पक्के होने और शादी होने में 6 महीने का अंतराल रहेगा, क्योंकि कल ही पंडित जी ने मम्मी को बताया कि 6 महीने तक कोई भी शुभ मुहूर्त नहीं है। इतना समय तो आपको अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने के लिए देना ही होगा। चाहे अपने माता-पिता की खुशी के लिए ही सही।’

छुटकी के मुंह से इतनी बड़ी बातें सुनकर सुनीता एकटक उसको देखे जा रही थी। उसको बहुत गर्व हो रहा था अपनी छुटकी पर। छुटकी की बातें दोनों के दिलों पर असर कर गई। वैसे भी विवेक और सुनीता बार-बार इस देखने दिखाने के तामझाम से परेशान हो चुके थे। दोनो ने इस रिश्ते के लिए हां कर दी। विवेक की मां ने सुनीता को सोने की चैन और सुनीता के पिता ने विवेक को शगुन, नारियल देकर रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगा दी।

शादी का मुहूर्त 6 महीने बाद का निकला। विवेक और सुनीता सिर्फ अपने मां-बाप की खुशी और समाज की नजर में शादी कर रहे थे। दोनों के बीच बातचीत बढ़ाने का काम घर वालों को ही करना था। यह बात दोनों के घर वाले भली-भांति जानते थे। इसी योजना के तहत विवेक को मां ने सुनीता को चूड़ी और अंगूठी का साइज लेने सुनीता के घर भेज दिया। बहाना शादी के जेवरात बनवाने का किया। विवेक के आने की खबर सुनते ही सुनीता के घर में सफाई और लजीज पकवान बनने का कार्यक्रम शुरू हो गया। थोड़ी आवभगत के बाद घर दिखाने की जिम्मेदारी मां ने सुनीता को दे दी।

सुनीता और विवेक, सुनीता के कमरे में पहुंच गए थे। एक व्यवस्थित कमरा, कमरे में मनोहारी पेंटिंग चारों तरफ लगी हुई थी। ‘लगता है आपको पेंटिंग करने का शौक है। बहुत ही अच्छी पेंटिंग है।Ó विवेक ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।

इन्ही के सहारे तो अपना बाकी जीवन काट रही हूं। सुनीता कैनवास पर टंगी अपनी अधूरी पेंटिंग पर रंग भरने लगी। सुनीता का स्वर भर्रा गया। दोनों के बीच बातों का सिलसिला शुरू हो इसलिए छुटकी विवेक को फोन मिलती और काम का बहाना बना फोन सुनीता को देकर चली जाती। परिवारजन दोनों को पास लाने की यथासंभव कोशिश करते रहते। काफी हद तक इसमें उन लोगों को सफलता भी मिली।

Dusri paari

मानसूनी बरसात ने मौसम खुशगवार बना दिया था। विवेक कुछ देर ऑफिस चेयर पर आंख बंद कर बैठा रहा। अचानक से सुनीता का चेहरा उसके मानसपटल पर घूमने लगा। उसने पहली बार कोशिश करके सुनीता को फोन किया। थोड़ी औपचारिक बातों के बाद विवेक को समझ नहीं आया क्या बात करूं। ‘आपकी पेंटिंग पूरी हो गई?’

‘नहीं, अधूरी है। कुछ नयापन देना है उसमें। समझ नहीं आ रहा कुछ।’

‘एक राय दूं, कल शहर में एक पेंटिंग एक्जीबिशन है। वहां से आपको नया आईडिया मिल सकता है।’

‘मैं आजतक कभी नहीं गई,’ सुनीता ने संकोचवश उत्तर दिया।

‘ओह! कोई बात नहीं, कल संडे है, मैं फ्री हूं, आपको ठीक लगे तो मैं चलता हूं आपके साथ।’

‘जी, जरूर। सुनीता ने स्वीकृति दे दी। सुनीता और विवेक की मुलाकातों में अब इजाफा होने लगा। दोनों कहते नहीं पर शायद प्यार का बीजारोपण दोनों के दिलो में हो चुका था। अब मिलने या बात करने के लिए घरवालों के पहल की जरूरत नहीं होती। विवेक ने अब बालों को कलर और चेहरे को क्लीन शेव करना शुरू कर दिया था। वहीं सुनीता पहली फुर्सत में पार्लर पहुंच जाती। जब से पता चला कि विवेक का पंसदीदा कलर ब्लू है वो अब ब्लू सूट ही पहनने लगी। छुटकी भी सुनीता को छेड़ती रहती। सुनीता अब गुस्सा नहीं होती, बस मुस्कुरा देती।

अपने बच्चों के इस बदले रवैये से दोनों के माता- पिता भी बहुत खुश थे। समय तो मानो पंख लगा कर उड़ गया। शादी को अब बस 15 दिन शेष थे। एक अनहोनी घटना ने दोनों परिवारों की खुशियों को ग्रहण लगा दिया। सुनीता के पिता सहमे कदमों से उसके पास आये और सोती हुई सुनीता के सर पर हाथ फेरने लगें। ‘पता नहीं, क्या लिखा है मेरी बेटी के नसीब में।

चेहरे पर आंसुओं की अनुभूति हुई तो सुनीता चौक कर उठ गई। क्या हुआ पापा, आप क्यों रो रहे हैं?

‘बेटा विवेक का रोड एक्सीडेंट हो गया है। वह हॉस्पिटल में एडमिट है।

अपने व्यवहार के मुताबिक सुनीता एकदम शांत हो गई पर सजल आंखें बह-बह कर उसके मन की व्यथा बता रही थी। वो बिना क्षण गंवाए परिवार के साथ हॉस्पिटल के लिए रवाना हो गई। घर से हॉस्पिटल तक की दूरी ने विवेक को सुनीता के नजदीक ला दिया। विवेक की सादगी, उसका सभ्य स्वभाव, सुनीता को रह-रहकर याद याद आने लगा। भले ही सुनीता का शरीर गाड़ी में बैठा हो पर मन पंख लगाकर विवेक के पास पहुंच गया था। घर से हॉस्पिटल तक का रास्ता उसने कई मनोस्थिति से गुज़रकर पास किया। विवेक ऑपरेशन थिएटर में था। सुनीता और घरवाले बाहर बैठे उसका इंतजार कर रहे थे। दोनों हाथ जोड़े, होठों पर अपने इष्ट देवता का नाम, दिमाग में हर पल घूमता विवेक की यादों का चलचित्र, दिल में ढेर सारी चिंता और व्यथा लिए सुनीता एकटक निगाहों से उस गेट के बाहर आंखें गड़ाए बैठी थी जहां से वो विवेक के सकुशल वापिस की उम्मीद कर रही थी।

ऑपरेशन थियेटर से आने के बाद विवेक ने सबसे पहले सुनीता से मिलने की इच्छा जाहिर की। दो जोड़ी आंखों से बहती अश्रूधारा विवेक के अपाहिज होने का गम बयां कर रही थी। विवेक कुछ कहता  इससे पहले ही सुनीता ने अपने जज्बातों को संभालते हुए कहा, ‘जल्दी घर आ जाओ विवेक जी, अगले हफ्ते हमारी शादी है।

‘एक अपाहिज के साथ अपना जीवन मत बर्बाद करो सुनीता।

‘पिछले पांच साल से एक जिंदा लाश की तरह थी मैं। दुनिया में तो बस देह मात्र था मेरा, पर आत्मा, वो तो कब की मर चुकी थी। आपने मुझे दुबारा जीना सिखाया है विवेक जी, मुझे फिर से विश्वास करना, प्यार करना सिखाया है।

‘सुनीता तुम ये सब जज्बातों में बह कर कह रही हो। जि़ंदगीं बहुत लम्बी होती है। पूरा जीवन एक बेसहारा का सहारा बन गुजारना पड़ेगा तुमको। प्रैक्टिल हो कर सोचो सुनीता।’

‘अगर ये सब मेरे साथ हुआ होता आप छोड़ देते मुझे? सुनीता ने प्रश्नवाचक दृष्टि विवेक पर डाली।

‘तुम्हारी बात अलग है सुनीता। प्यार करते हो आप मुझसे? विवेक ने मुंह फेर लिया। सुनीता ने स्नेह भरा हाथ विवेक के सर पर फेरा। विवेक छोटे बच्चे की तरह फफक-फफक कर रोने लगा।

‘बहुत प्यार करने लगा हूं तुमको सुनीता। अपने आप से भी ज्यादा। सुनीता के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। उसने भी दिल खोल कर रख दिया विवेक के आगे। ‘आई लव यू टू विवेक जी’, फिर वो लजा गई। विवेक ने प्यार से उसका हाथ अपने हाथ से  दबा कर मानो उसका अभिवादन किया।

‘मैने बिल्कुल भी नहीं सोचा था हमारे प्यार का इजहार हॉस्पिटल में होगा। हमारी लाइफ में इतनी ट्रेजडी क्यों आती है? सुनीता माहौल को हल्का बनाने में लगी थी ताकि विवेक थोड़ा संभल जाये। विवेक थोड़ा मुस्कुराया और अगले ही पल थोड़ा गंभीर होकर बोला, ‘एक बार फिर सोच लो सुनीता।

सुनीता कुछ बोलती इससे पहले ही सुनीता के पिता और बाकी घरवाले विवेक से मिलने आ गये। ‘सुनीता को कुछ सोचने की जरूरत नहीं है बेटा। ये शादी जरूर होगी। तुमसे अच्छा जीवनसाथी मेरी बेटी को नहीं मिल सकता। डॉक्टर से बात हुई है, अभी तुम्हें कृत्रिम पैर लग सकता है। एक ऑपरेशन के बाद तुम फिर चल फिर सकते हो बेटा। सुनीता के पिता ने आशीष भरा हाथ दोनों के सर पर रख दिया। दोनों की अटूट गांठ अब कोई ऑपरेशन नहीं तोड़ सकता था। सुनीता और विवेक को आखिर उनके जीवन की दूसरी पारी का साझीदार मिल ही गया था। 

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