23rd January 2021
बचपन में यूं तो सभी बच्चे शरारतें करते ही हैं। बड़े होने पर उन शरारतों को याद करने पर खट्टी-मीठी यादें मन को गुदगुदा जाती हैं। बात तब की है जब मेरी उम्र 4 या 5 साल होगी। मुझे बड़ों की देखादेखी चश्मा पहनने का बड़ा शौक था। पापा, मम्मी, बुआ किसी का भी चश्मा लगाकर दर्पण के आगे खड़ी हो जाती। उस दिन छत पर दादीजी कुछ पढ़ते-पढ़ते सो गईं। मैंने आव देखा न ताव, चुपके से उनका चश्मा उतारा और खुद पहन लिया। वह चश्मा नजर वाला था न कि साधारण। उसे लगाए सीढ़ियां उतरी तो दृष्टिभ्रम के कारण सीढ़ी से पैर आगे पड़ गया। फिर क्या था, लुढ़कते हुए नीचे आंगन में आकर गिरी। चोट लगी तो अलग, दादी का चश्मा भी टूट गया। मेरे रोने की आवाज सुनकर घर के लोग दौड़े-दौड़े आए। डांट भी पड़ी। पर दादीजी ने मेरा साथ दिया और मुझे गोद में उठाते हुए कहा, 'तेरी तरह मैं भी शरारती थी!' आज भी इस घटना को याद करती हूं तो आंखों में आंसू आ जाते हैं, क्योंकि मेरी दादीजी अब इस दुनिया में नहीं हैं।
यह भी पढ़ें -नाबालिग अपराधी - गृहलक्ष्मी कहानियां
-आपको यह कहानी कैसी लगी? अपनी प्रतिक्रियाएं जरुर भेजें। प्रतिक्रियाओं के साथ ही आप अपनी कहानियां भी हमें ई-मेल कर सकते हैं- Editor@grehlakshmi.com
-डायमंड पॉकेट बुक्स की अन्य रोचक कहानियों और प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं को खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- https://bit.ly/39Vn1ji
गुजरात का कच्छ इन दिनों फिर चर्चा में है और यह चर्चा...
वैसे तो 'कुम्भ पर्व' का समूचा रूपक ज्योतिष शास्त्र...
ज्ञान की देवी के रूप में प्राय: हर भारतीय मां सरस्वती...
लोकगीतों में बसंत का अत्यधिक माहात्म्य है। एक तो बसंत...
कमेंट करें