24th February 2021
माघ महीने की पूर्णिमा को मनाई जाती है संत रविदास की जयंती। रविदास्सिया समुदाय यानी उनके अनुयायियों के लिए यह दिन किसी वार्षिक उत्सव से कम नहीं होता है। इस वर्ष उनकी जयंती 9 फरवरी को मनाई जाएगी।
भारत की भूमि पर कई ऐसे महान साधु-संत, दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक हुए हैं, जिन्होंने अपनी वाणी और रचनाओं के माध्यम से समाज को धार्मिक सौहार्द एवं सामाजिक एकता का संदेश दिया। ऐसे साधु-संत युगों-युगों तक जीवित रहते हैं। पीढ़ियां बदलती है, लेकिन इनकी वाणी और विचार मार्गदर्शन करते ही रहते हैं। और ऐसे ही संतों में एक नाम है रविदास का, जो रैदास के नाम से जनमानस के बीच ज्यादा लोकप्रिय हैं। वे रोहिदास एवं रुहिदास भी कहकर संबोधित किए जाते हैं। यूं तो संत रविदास के जन्म की प्रामाणिक तिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद है, किंतु अधिकतर विद्वान मानते हैं कि काशी में माघ पूर्णिमा के दिन रविवार को संवत 1388 को रविदास का जन्म हुआ था। उनके जन्म को लेकर एक दोहा भी प्रचलित है-
चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास।
दुखियों के कल्याण हित
प्रगटे श्री रविदास॥
आज उनके जन्म के हजारों वर्ष बाद भी उनके अनुयायी उन्हें भगवान से कम नहीं आंकते। उनकी जयंती के अवसर पर सिख समुदाय द्वारा गुरुद्वारों में कीर्तन का आयोजन होता है, मंदिरों में उनके गाने एवं दोहे गाए जाते हैं। उनकी जन्म स्थली काशी में विशेष कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। रैदास के चालीस पद गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं, जिसका संपादन सिखों के 5वें गुरु गुरु अर्जुन देव ने 16वी शताब्दी में किया था।
यह रैदास के प्रेम और माधुर्य भरी वाणी का ही परिणाम था कि उनकी प्रसिद्धि से पंद्रहवी-सोलहवीं शताब्दी के राजघराने भी अछूते नहीं थे। उनके समकालीन कई राजा-रानी उनके शिष्य एवं अनुयायी बन चुके थे। कहते हैं इन अनुयायियों में रानी मीराबाई भी शामिल थीं। रैदास जाति से चर्मकार थे। उनके पिता जूते बनाने का काम करते थे और उनके व्यवसाय को आगे बढ़ाया रैदास ने। भले वे पेशे से चर्मकार थे लेकिन उच्च कोटी के आध्यात्मिक संत भी थे। न ही उन्होंने प्रभु की भक्ति छोड़ी और न ही अपना जूते सीने का पेशा। ऌपुरोहित वर्ग उन्हें हेय दृष्टि से देखता था। लेकिन रैदास उन सारे कामों को करते थे जिन्हें उनकी जाति के लिए वर्जित माना जाता था। वे कभी जनेऊ भी धारण कर लेते, कभी तिलक लगा लेते, धोती पहनते। उन्होंने अपने दोहों में जात-पात, भेदभाव के विरुद्ध खुलकर अपने विचार रखे हैं।
रविदास जन्म के कारने होत
न कोऊ नीच।
नर कूं नीच करि डारि है ओछे
करम की कीच॥
उन्होंने आपसी प्रेम एवं भाईचारे-बंधुत्व का संदेश दिया और यही उनकेदोहों में भी दिखाई देता है-
कृष्ण, करीम, राम, हरि, राधव, जब लग एक न देखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा॥
चारो वेद के कटे खंडौती। जन रैदास करे दंडौति॥
उन्होंने राम, कृष्ण, करीम, राधव आदि सभी को एक ही परम ईश्वर एवं सत्ता के विविध नाम बताया और पुराण, कुरान आदि ग्रंथों में एक ही ईश्वर का गुणगान किया। रैदास निर्गुण संप्रदाय के थे। इसके बावजूद वह राम भक्त थे और अपने प्रभु को राम, राजा रामचंद्र, रधुनाथ, हरि, गोविंद आदि नामों से स्मरण करते थे-
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी। ओछा जनमु हमारा।
तुम सरनागति राजा रामचंद्र। कहि रविदास चमारा॥
वह प्रभु राम की भक्ति और प्रेम में कुछ इस तरह रंग जाते हैं-
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी॥
उन्होंने अपने भक्ति गीतों एवं दोहों में सामाजिक समरसता एवं प्रेम भाव जगाने का काम किया है। वह समाज को कलम के माध्यम से जातिगत बंधनों से ऊपर उठाना चाहते थे। रैदास जाति व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैं कि जबतक हम अपनी जाति से बाहर नहीं आते तबतक मनुष्य एक नहीं हो सकता। वह समाज को संदेश देते हैं-
करम बंधन में बंध रहियो, फल की ना तज्जियो आस।
अपनी प्रेम और माधुर्य की भाषा के कारण रविदास जात-पात के भेदभाव से परे हर वर्ग को प्रिय हो गए। तभी तो वे अपने समकालीन और प्रसिद्ध संत कबीर की भांति संत कोटि के प्रमुख कवियों में भी विशिष्टï स्थान रखते हैं यहां तक कि खुद कबीर जैसे प्रसिद्ध संत भी उन्हें 'संतन में रविदास' कहकर सम्मानित करते हैं।
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