पाप – यानी मनसा,वाचा,कर्मना किसी को दुःख देना।

मनसा-मन में किसी तरह का ग़लत विचार करना,दूसरों के लिए व अपने प्रति करना।

वाचा– मुख से कुछ भी अशोभनीय या दिल दुखाने वाली बातें बोलना ।

कर्मणा-अपने कर्म से अगर हिंसा करते हैं तो वो पाप की श्रेणी में आता है और सबसे महत्वपूर्ण इन विकारों का उपयोग करना-नशा,काम,क्रोध,मोह,लोभ,अहंकार यह भी पाप की श्रेणी में आता है।

ऐसा कोई भी काम,जिसको करने से मानव के विवेक का नाश,प्राकृतिक संसाधन का नाश या मनुष्य को उसके अपने मूल लक्ष्य से हटा दे,या ईश्वर को अप्रिय लगे वह पाप है।किसी संत ने कहा है,कि किसी प्राणी मात्र को किसी भी प्रकार दुःख देना या दुखी करना ही पाप है।शस्त्र  का चलना ही पाप है।हिंसा,परनिंदा,कलह आदि ये सब पाप के ही अलग अलग रूप हैं।इसके अलावा भी किसी को धोखा देना,ग़लत व्यवहार करना,किसी का दिल दुखाना,बड़ों की बात न मानना,उनकी आज्ञा का पालन न करना,अपने आप में अहंभाव का होना,ये सब कार्य पाप की श्रेणी में आते हैं।

हिंदू धर्मग्रंथ वेदों का संक्षिप्त है उपनिषद और उपनिषद का संक्षिप्त है गीता। ये ग्रंथ ज्ञान सम्बंधी बातों को क्रमशः और स्पष्ट तौर से समझाती हैं।

विद्वान कहते हैं कि,जीवन को धर्मग्रंथों के अनुसार ढालना चाहिए। धर्म के अनुसार प्रमुख दस पुण्य और दस पाप हैं।इन्हें जानकर और उन पर अमल करके कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। गीतानुसार दस पाप कर्म हैं—-

१-दूसरों का धन हड़पने की इच्छा

२-निषिद्ध कर्म करने का प्रयास

३-देह को ही सब कुछ मानना

४-कठोर वचन बोलना

५-झूठ बोलना

६-निंदा करना,

७-बकवास(बिना कारण बोलना)

८-चोरी करना

९-तन,मन,कर्म से किसी को दुःख देना,

१०-परस्त्री या पुरुष से संबंध बनाना

जीव की अशुभ क्रियाएँ पाप कहलाती हैं।अन्य शब्दों में,जिन कर्म प्रकृतियों का फल,दुःख,रूप परिणमिता है उन्हें,पाप कहा जाता है।दूसरे शब्दों में जिन क्रियाओं से जीव को दुःख,वेदना,प्रताड़ना आदि कष्ट भोगने पड़े उन्हें पाप कहा जा सकता  है।पाप करते समय सुखकर,किंतु भोगते समय दुःखकर प्रतीत होता है।पाप के सेवन से जीव नीच गति में जाता है,तथा इनके त्याग से उच्च गति को प्राप्त करता है

पाप का जन्म कर्म करने से नहीं होता अपितु पाप सबसे पहले मनुष्य के मस्तिष्क में जन्म ले चुका होता है।मान लीजिए किसी लड़की या पराई स्त्री को देखकर चाहे व्यक्ति शारीरिक रूप से उसे कोई दुःख न पहुँचाकर ,मन में उसके प्रति बुरा ख्याल,बुरे विचार ही रखे तो ,इसके दंड के प्रावधान शास्त्रों में लिखे जा चुके होते हैं

जब कोई व्यक्ति सामान्य या घोर पाप या अपराध करता है,और उसे करने के बाद प्रायश्चित करता है तब उसका पाप क्षम्य हो जाता है,लेकिन यदि वह,वही पाप या अपराध बार बार करता है तो फिर दंड का भागी बनता है

 पाप की तीव्रता के अनुसार प्रायश्चित मंद से तीव्र स्वरूप का होता है।जैसे अनजाने में हुए पाप साधारणत:पश्चाताप होने से या सबके समक्ष बताने से नष्ट हो जाते हैं,परंतु जानबूझकर किए गए पापों के लिए तीव्र स्वरूप का प्रायश्चित जैसे,तीर्थ यात्रा पर जाना,दान करना,उपवास करना आदि।

किस प्रकार के पाप के लिए कौन सा प्रायश्चित लेना चाहिए, इसकी विस्तृत जानकारी पुराणों में मिलती है।.

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