……………‘लेकिन महाराज!’ प्रताप सिंह ने फिर कहना चाहा।

 ‘मैंने कहा न, अब यह मंगनी कभी नहीं होगी।’

‘लेकिन महाराज! अब तो बहुत देर हो चुकी है। वे लोग तो राजमहल के लिए निकल भी पड़े होंगे। इसके अतिरिक्त शहर के कलेक्टर, कमिश्नर तथा उन सबका क्या होगा, जिन्हें निमंत्रण भी भेजे जा चुके हैं।’

‘प्रताप सिंह!’ राजा विजयभान सिंह जोर से चीखे‒ ‘तुमने यह सूचना देने में हमें बहुत देर कर दी। क्या इसके पीछे स्वार्थ का हमें ज्ञान हो सकता है?’

‘महाराज! आपने हमारे जीवन की धारा बदल दी है, इसलिए हम चाहते हैं कि आपके जीवन का यह सूनापन भी दूर हो जाए। इस महल में कोई महारानी बनकर आए, ताकि यहां की दासियों को सेवा करने का अवसर प्राप्त होता रहे। जबसे आपने खामोशी धारण की है, किसी के पास कोई काम नहीं रह गया। आपका महल बस जाए तो हमें ही नहीं, सारी प्रजा को भी दिली संतोष प्राप्त होगा। हम जानते थे, यदि यह बात आपको याद दिलाई गई तो आप मंगनी से इनकार कर देंगे, इसलिए हमने ऐसा अवसर नहीं आने दिया।’

‘उफ ओह!’ राजा विजयभान सिंह ने खिसियाकर चलते हुए अपना हाथ झटका, ‘तुमने मुझे एक मुसीबत में डाल दिया। यदि तुम्हारी जगह कोई और होता तो मैं उसे गोली मार देता।’

प्रताप सिंह दबे होंठ हल्के से मुस्कराया। उसको आशा की किरण दिखाई पड़ी। यदि महाराज की मंगनी हो गई तो राधा का विचार इन्हें अधिक नहीं सता सकेगा। महाराज जैसे सुंदर, लंबे-चौड़े, गोरे-चिट्टे आदमी के लिए किसी राजकुमारी की ही आवश्यकता है, गांव की गंदी युवती की नहीं। राजा विजयभान सिंह को परेशान अवस्था में छोड़कर वह महल के अंदर प्रविष्ट हो गया, तुरंत ही उसे मेहमानों की गिनती के अनुसार खाने-पीने का प्रबंध करना था।

उस सारी रात विजयभान सिंह बहुत परेशान रहे। एक पल भी चैन नहीं मिला। राधा का वही रूप, लुटी हुई अवस्था, भीगी हुई पलकें उनके दिल और दिमाग पर चुभते रहे। कानों में उसकी बद्दुआ पिघले शीशे के समान उतरती रही, परंतु बेलापुर की राजकुमारी के साथ मंगनी से इनकार करने का उन्हें कोई भी बहाना नहीं मिला।

शादी-विवाह तो एक अपनी ही पसंद होती है, जिस पर किसी का अधिकार नहीं होना चाहिए, परंतु उसके पिता ने जाने क्यों चौधरी कपाल सिंह से अपनी दोस्ती की गांठ मजबूत करने के लिए उसको सहारा बना लिया था। यदि राधा की ओर से कोई आशा होती तो इस मंगनी से इनकार करने मेें उन्हें आसानी होती, परंतु वह भी तो चली गई, उन्हें कोसती हुई, उनको बददुआएं देती हुई।……….

……….सुबह की पौ फटने से पहले ही वह बेहाल-से होकर बाहर निकल आए। कुछ देर महल के लॉन में टहलते रहे, फिर अचानक ही एक विचार से उनके शरीर में स्फूर्ति दौड़ गई। अंदर जाकर उन्होंने शीघ्रता से अपने कपड़े बदले। कुर्ता-पायजामा ही पहन लिया। फिर अस्तबल से घोड़ा लेकर एक ओर हांक लगाते चले गए, बढ़ते ही चले गए। यहां तक कि उनके इलाके के खेत-खलिहान पार हो गए, ऊंचे-नीचे टीले पीछे छूट गए, उलझी हुई पगडंडियों पर वह स्वयं खो गए‒ अपनी सीमा से बहुत दूर निकल गए। यहां तक कि सूर्य चढ़ आया, धूप तेज हो गई, परंतु उन्होंने बढ़ना नहीं छोड़ा।

ऐसा लगता था मानो वह अपने आप से ही भाग जाना चाहते थे‒ बहुत दूर। बहुत ही दूर, परंतु मनुष्य इस बात में कभी सफल नहीं होता‒ छाया पीछा छोड़ सकती है, परंतु दिल के अंदर की वास्तविक आवाज का गला कभी नहीं घुटता‒मरते दम तक यह आवाज पीछा नहीं छोड़ती और शायद इसलिए मरते-मरते भी मनुष्य अपने अतीत को नहीं भूल पाता। अपनी करनी की याद करके तड़पता रहता हैं और यही हाल उनका भी हो रहा था।

कृष्णानगर समीप आया तो एक टीले पर अपने घोड़े को चढ़ाकर उन्होंने दूर तक दृष्टि डाली। एक गांव था छोटा गंदा। छोटे-छोटे बच्चे धूप में खेल रहे थे। उन्होंने चाहा कि इनमें से किसी के समीप जाकर राधा के बारे में पूछताछ करे कि तभी उनकी दृष्टि टीले की जड़ से लगी हुई पगडंडी पर जाती एक लड़की पर पड़ी। सिर पर लकड़ी का बड़ा गट्ठर होने के कारण उसका मुखड़ा देखना असंभव था, फिर भी शरीर की बनावट से अनुमान होता था कि वह यौवन की अंगड़ाई में है।

घोड़े से उतरकर उन्होंने लगाम थामी और नीचे आने लगे। तभी घोड़े की टाप सुनकर वह लड़की ठिठक गई। उसने सिर उठाकर देखा तो पग डगमगा गए, शरीर कांप गया। सिर से गट्ठर छूटकर नीचे गिर पड़ा। राजा विजयभान सिंह यहां! इस समय! कम्बख्त यहां भी पीछा छोड़ना नहीं चाहता। उसने चाहा कि तुरंत ही भाग जाए, परंतु तब तक राजा विजयभान सिंह उसके समीप आ चुके थे।

‘राधा…!’ उन्होंने बहुत दर्द भरे स्वर में कहा‒ ‘क्या तुम अब भी मुझे क्षमा नहीं करोगी? तुम्हें ही ढूंढने निकला था। आओ चलो मेरे साथ।’ उन्होंने एक हाथ उसकी ओर बढ़ाया।

राधा उन्हें बहुत आश्चर्य से देखने लगी। बहुत लापरवाही से पहना गया कुर्ता-पायजामा। पसीने से भीगकर उनके गोरे शरीर से चिपक गये थे। घने उलझे हुए बाल, मानो स्वप्न से उठकर चले आ रहे हों। पूरे मुखड़े पर पसीने की मोटी-मोटी बूंदें एकत्र थीं। गले के हार तथा कानों के बुंदों पर यह मोती के समान पड़ी हुई थी। आंखों में गहरी उदासी, होंठों पर वास्तविक क्षमा की मांग।

राधा के दिल को एक सच्ची शांति मिली, एक वास्तविक प्रसन्नता का उसने आभास किया। रामगढ़ इलाके का राजा, अपना राजमहल छोड़कर गांव की एक गोरी की कुटिया पर भीख मांगने आया है! क्षमा मांगने आया है, भिखारी! राजा विजयभान सिंह, भिखारी! उसका जी चाहा वह जोर से हंस पड़े, चीख-चीखकर ठहाके लगाने लगे।…………………..

आगे की कहानी कल पढ़ें, इसी जगह, इसी समय….

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