अजय के हाथ से सूटकेस लेते ही दीवानचन्द ने घर के द्वार चारों ओर से बन्द किए। फिर सूटकेस खोला। भगवान कृष्ण की एक मूर्ति- सोने की। दीवानचन्द के होंठ फैल गए। उन्होंने मूर्ति उठाते हुए बहुत जोर से ठहाका लगाया, ‘हा-हा…हा-हा…हा-हा…

फिर होंठ भींचते हुए बोले, ‘भगवान अब तुम भी विदेश चले जाओ। वहीं रहना और खूब मजे करना। हा-हा…हा-हा…’

वह खामोश हो गए। फिर बहुत गंभीर। उनकी आंखों में आंसू आ गए। वह वहीं दीवार पर टंगी अपनी धर्मपत्नी की तस्वीर को देखने लगे।

‘पिताजी’ आखिर अजय ने आज फिर पूछा, ‘आप भगवान का इतना मजाक क्यों उड़ाते हैं? इसके बाद आप फिर इस प्रकार इतना गंभीर भी क्यों हो जाते हैं?’

‘बेटा’ दीवानचन्द ने कहा, ‘यदि भगवान चाहता तो मेरी पत्नी मुझसे नहीं बिछुड़ती फिर तू कभी चन्दानी के गिरोह का सदस्य नहीं बनता।’

‘मां के मरने के बाद भी तो आप मुझे अपने से दूर रखकर एक अच्छा नागरिक बनने पर विवश कर सकते थे। कोई बाप अपराधी होने के पश्चात् अपने बेटे को अपराधी नहीं बनाता, फिर आपने ऐसा क्यों किया? अवश्य आपके दिल में कोई भेद है, जो आप मुझे बताना नहीं चाहते।’

‘भेद तो है बेटा, अवश्य। यह बात तुमसे मैंने पहले भी कई बार कही है, परन्तु अभी उसे बताने का समय नहीं आया। प्रायः सोचता हूं कि तुझे अपने पास रखकर मैंने अच्छा नहीं किया, परन्तु बेटा, परिस्थिति भी तो कोई विवशता होती है। मरने से पहले यदि तुझे मैंने सब-कुछ नहीं बताया तो तू मुझे कभी भी क्षमा मत करना।’

अजय खामोश हो गया। उसके पिता मरने की बात क्यों करते हैं! भगवान उन्हें एक लम्बी आयु दे। निश्चय ही कोई कारण होगा उनके अपराधी बनने का। उसे भी शायद वह असीम प्यार के कारण ही अपने से अलग नहीं रख सके। वह बिना मां की सन्तान जो था।

कुछ देर बाद दीवानचन्द ने मूर्ति सूटकेस में रख दी। फिर अपने बॉस को फोन द्वारा सूचित किया कि उनका बेटा वापस आ चुका है। चन्दानी के लिए इतना ही इशारा बहुत था। उसने अपना आदमी भेजकर सूटकेस लाने का प्रबन्ध कर दिया इस बीच अजय स्नान करने की तैयारी करने चला गया था।

कुछेक दिन बीत गए। अजय के दिल में अंशु की तस्वीर धुंधली पड़ने लगी। अंशु को भूल जाने में ही उसने अच्छाई समझी। अंशु जो भी थी, एक आकाश का ऊंचा तारा अवश्य थी, जबकि वह धरती की गन्दी धूल है। क्या अंशु के एक इशारे पर वह इतना बड़ा तथा भयानक गिरोह छोड़कर एक नया जीवन व्यतीत करने का साहस कर सकता है? शायद हां- शायद नहीं, परन्तु अंशु उसे ऐसा इशारा क्यों करने लगी? भला उसे उससे क्या मतलब? अजय ने उस यात्रा को एक सुन्दर स्वप्न समझकर भुला देना ही बुद्धिमानी समझी और एक सीमा तक वह सफल भी हो गया।

कुछेक दिन बाद दीवानचन्द तथा अजय को चन्दानी के बंगले पर एक पार्टी में सम्मिलित होने का निमन्त्रण मिला। अभी हाल ही में उसका बेटा रंधीर लन्दन से आया था- दो वर्ष बाद। यह पार्टी इसी खुशी में थी। अपनी पार्टियों में चन्दानी अपने गिरोह के उन सभी ऊंचे कार्यकर्ताओं को अवश्य बुलाता था, जिनकी गणना आदरणीय नागरिकों में थी।

‘क्या बॉस का लड़का भी हमारा बॉस बनेगा?’ अजय ने अपने पिता से पूछा।

‘मैं ऐसा नहीं समझता। चन्दानी एक बहुत ही चालाक तथा भयानक अपराधी है, जबकि रंधीर में अभी ऐसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ती। वह तो एक नम्बर का आवारा है। अपने बाप की काली कमाई द्वारा वह देश-विदेश में रंगरलियां मनाने में अधिक रुचि लेता है। हां, आगे चलकर उसका स्वभाव बदल जाए तो बात अलग है।’

अजय ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसे किसी के निजी काम से कोई सम्बन्ध भी नहीं था। उसे केवल अपने आप से मतलब था – और अपने पिता से। उसका स्वभाव अन्य अपराधियों से बिल्कुल अलग था– गम्भीर – और इसीलिए अपने हर काम को वह बहुत गम्भीरता से सोच-विचार करके ही पूरा करता था। 

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