मेरे पड़ोसी के घर आज चार-पांच दिन हुए पोता हुआ था। सब बड़े ही खुश हैं। मैं भी अपने काम जल्दी निपटा कर जाना चाह रही हूं। अचानक मांजी की आवाज़ कानों में पड़ी- ‘शिखा, चार-पांच दिन तो हो गए। अभी तक इन लोगों के यहां वे नाचने-गाने वाले लोग नहीं आए। कब आएंगे?’आ जाएंगे मां जी, आप क्यों परेशान हैं? आप कब तक ऐसे परेशान रहेंगी? सरस्वती को याद करके अब मत सोचा करिए। नहीं तो फिर आपकी तबियत खराब हो जाएगी। जाइए, पड़ोस में हो आइए। आपका मन बहल जाएगा। मैं आपके कपड़े निकाल देती हूं। कहिए तो मैं भी आपके साथ चलूं। ठीक है? शिखा यह कह कर रमा के कपड़े निकालने अंदर वाले कमरे में चली गई और इधर रमा के सामने अतीत करवटें लेने लगा। वह अतीत में खोती चली गई। अब तो पच्चील साल के पार हो गए उस बात को घटे हुए। तीन बेटों के बाद एक बेटी हुई। सब बड़े ही खुश हुए। बेटी घर पर ही बिना किसी तकलीफ के नॉर्मल डिलीवरी से हो गई। बाद में जांच के लिए अस्पताल ले जाने पर बच्ची को देखते ही कमरे में मौजूद महिलाएं चौंक गईं। रमा का तो रो-रो कर बुरा हाल था। जिस बात को वह इतने जतन से घरवालों ही नहीं, बल्कि अपने-आप तक से छिपा रही थी, वह अब सबके सामने उजागर हुआ पड़ा था। उसने बेटी को बुरी तरह से छाती से चिपटा लिया और तुरंत सबसे हाथ जोड़ कर विनती करने लगी कि कृपया इस बात को कमरे से बाहर न जाने दें।

उसका रोते-रोते बुरा हाल देख वहां मौजूद महिलाएं खामोश हो गईं, लेकिन रमा के मन में गहरे तक ये डर बैठ गया कि उसकी बच्ची किसी भी दिन उससे छिन सकती है। वह हर समय बच्ची को अपनी निगरानी में ही रखने लगी। घरवाले भी उसके इस प्रयास में उसके साथ थे, यह बहुत बड़ी राहत थी। रमा और उसकी देवरानी, दोनों की कड़ी निगरानी में बच्ची पलने लगी। उसका नाम ‘सरस्वतीÓ रखा गया। इसका भी कारण था। सरस्वती की बोली इस नन्ही सी आयु में भी इतनी मधुर थी कि बार-बार सुनने का मन करता था। गाना तो वह इतना मीठा गाती थी कि अक्सर सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता था। वह अक्सर गाया करती, ‘तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, ह्रश्वयारी-ह्रश्वयारी है, ओ मां…Ó और अपनी मां की पीठ पर लटक जाती। रमा भी भावविभोर हो जाती। ऐसे ही समय बीतने लगा। सरस्वती आठवीं कक्षा में पढऩे लगी। अब उसके शरीर के उठान का समय था, जैसा कि सभी लड़कियों के साथ होता है, लेकिन जिस राज़ को इतने जतन से बरसों से छिपाया जा रहा था, अब वह अपनी सारी परतों को खोलने पर उतारू हो चला। सरस्वती की शारीरिक कमियों की तरफ उसकी सहेलियों का ध्यान जाने लगा और उनकी आपस में कानाफूसी भी होने लगी। सरस्वती को रमा ने सब-कुछ अच्छे से समझा दिया था कि अपनी शारीरिक कमियों के बारे में कभी भी किसी से कुछ न कहे, पर सरस्वती से चूक हो ही गई। उसने बहुत पूछने पर अपनी सबसे पक्की सहेली को बता दिया कि वह उन लोगों जैसी नहीं है। कहा जाता है न कि मुंह से निकली बात और हाथ से निकला तीर फिर वापस नहीं आते। बात उड़ते-उड़ते स्कूल की चारदीवारी लांघ कर हिजड़ा समाज के लोगों तक पहुंच गई। बस फिर क्या था। वही हुआ, जो होना शायद सरस्वती के जन्म के समय से तय था। जिसके डर के साये में ही रमा ने इतने साल काटे थे।
 
आज वह चाह कर भी अपनी बच्ची को उन लोगों से बचा नहीं पा रही थी। वे लोग बहुत बड़ी संख्या में आए थे और लंबी बहस और छीना-झपटी के बाद वे जब सरस्वती को ले जाने लगे, तब बड़ा ही हृदय विदारक दृश्य था। रमा रोती-बिलखती पछाड़े खा-खाकर गिर रही थी। उसकी ममता देख पूरे मुहल्ले में सब दुखी थे। उन सभी लोगों ने हिजड़ा समाज से आए लोगों से लाख मन्नतें कीं। वे विनती करते रहे कि सरस्वती को मत ले जाओ, पर वे नहीं माने। बेसुध सी रमा तो उनके पैरों से ही लिपटने लगी। बोली, ‘मेरे सारे जेवर, घर सब ले लो, पर मेरी सरस्वती को मुझे दे दो। मत छीनो मेरे जिगर के टुकड़े को।Ó पर शायद उन लोगों को ऐसी चीख-पुकारों को अनसुना करने की आदत पड़ चुकी थी। इस सारी छीना-झपटी के बीच सरस्वती डर से पीली पड़ते-पड़ते सुध खो बैठी और बेहोश हो गई। उसी बेसुधी में सरस्वती को वे लोग जबरन ले ही गए और रमा को दे गए एक अंतहीन सा इंतज़ार। आज पच्चीस वर्ष हो गए, सरस्वती की तलाश में भटकते। आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारी में जब, जहां कोई ऐसा अवसर होता कि उस समुदाय के नाचने वाले लोगों के आने की संभावना होती, रमा देवी सरस्वती को ढूंढऩे पहुंच जातीं। रमा को पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन उनकी बच्ची उन्हें मिल ही जाएगी।
 
एक दिन रमा देवी के पास उनके एक पुराने पड़ोसी का फोन आया, जो अब दूसरे मोहल्ले में रहने लगे थे। ‘मामी जी, आप जल्दी यहां आ जाइए। यहां एक घर में शादी है और वहां उसी समुदाय के नाचने वालों में मुझे ऐसा लग रहा है कि एक लड़की हमारी सरस्वती भी है। आप देख कर पहचान लीजिए। जल्दी आइए आप यहां। रमा देवी तुरंत अपने पड़ोसी के यहां पहुंच गईं। उन्होंने देखा और उनकी ममता ने झट से अपनी सरस्वती को पहचान लिया, पर एकदम से वह भी कुछ कह न सकीं। सब नाच-गा रहे थे, पर सरस्वती एक कोने में सिमटी सी चुप बैठी थी। रमा देवी ने खुद पर जैसे-तैसे काबू पाया और उसके पास ही जाकर बैठ गईं और कहा, ‘बेटी! तुम भी कुछ सुनाओ।पर वह कुछ न बोली। बस उसकी आंखों से आंसू गिरने लगे और ज़रा देर में उसका चेहरा आंसुओं से भीग उठा।
 
रमा भीतर तक पिघल गईं, लेकिन संयम बरतना ज़रूरी था। धीरे से पूछा, ‘बेटी तुम रो क्यों रही हो। उसके साथियों में से एक ने कहा, ‘इस बेला का तो हमारे इस काम में मन ही नहीं लगता। हां पढऩे-लिखने में बहुत मन लगता है इसका। बहुत अच्छे स्वभाव की है। हम सबका बहुत ख्याल रखती है। सबके दुख-दर्द में साथ रहने वाली, इसलिए हम इसे ये सब करने के लिए जोर नहीं देते। हम अपने मालिक को भी कुछ नहीं बताते नहीं, वरना तो वह इससे ये सब जरूर करवाएगी जबर्दस्ती। वैसे तो ये गाती-नाचती नहीं है, लेकिन कभी अपने मन से गाती है तो सुनने वाले का कलेजा चीर कर रख देती है। जाने कहां का दर्द अपने भीतर समा रखा है। 
 
रमा देवी ने जो संयम का बांध अपनी ममता के आवेग पर लगा रखा था, वह अब टूटने को हो चला था। उन्होंने भरी हुई आंखों से सरस्वती की ओर देखा और उसे अपने पास बुलाया, ‘बेला बेटी! इधर आओ। सरस्वती रमा देवी के पास आकर बैठी तो रमा देवी उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगीं और बोलीं, ‘सरस्वती, मेरी बच्ची, अभी तक अपनी मां को नहीं पहचान पाई री। सरस्वती तुरंत अपनी मां के गले लग रूंधे गले से बोली, ‘मां, मैंने आपको देखते ही पहचान लिया था, पर सबके सामने चुप थी कि आपको कोई कुछ न कहे।
 
‘नहीं मेरी बच्ची, मां को बस अपने बच्चों की फिक्र होती है, किसी के कुछ कहने-सुनने की नहीं। आज कितने वर्षों बाद मुझे मेरी बेटी बेला मिली है। कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा तुझे। कहां चली गई थी मेरी बच्ची। कैसी है तू। अब चल तू मेरे साथ। अब नहीं ले जाने दूंगी किसी को मैं अपने इस कलेजे के टुकड़े को। सरस्वती को अपने सीने से चिपकाए रमा देवी रोती-बिलखती, विलाप करती रही। सारे लोग अचरज से इन दोनों को देख-सुन रहे थे। अब तक सबको बात समझ में आ गई थी।
 
सरस्वती ने सिसकते हुए कहा, ‘मां, मेरा अब वापस आना संभव नहीं है, लेकिन मां ये सब मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। ये सब बहुत अच्छे हैं। मैं ही नहीं, सब की सब ये किसी न किसी कारण से अपने घर से बिछड़ी हुई हैं। सब मेरा दर्द समझते हैं। अब मैं आपसे मिलने आती रहा करूंगी। घर में सब कैसे हैं? मेरे भाई लोग मुझे याद करते हैं या नहीं? कहीं वे मेरे कारण शॄमदा तो नहीं है?
‘नहीं बेटी, कोई तेरी वजह से शॄमदा नहीं है। तू अंश है मेरा, वैसे ही जैसे तेरे भाई हैं। वह घर तेरा आज भी इंतज़ार कर रहा है। सब तुझे याद करते हैं। बेटी! तू घर चल तो एक बार।Ó रमा देवी सरस्वती को अपने से कस कर चिपटाए रोए जा रही थीं। सरस्वती अपने साथियों की तरफ याचना भरी नजरों से देख रही थी। तभी उनमें से एक ने कहा, ‘चल सब चलते हैं बेला। बहुत दिनों बाद मां मिली हैं। चल मां के साथ तेरे घर चलते हैं। और हां, खबरदार जो किसी ने मालिक से कुछ कहा। आज मां के घर सब खाना खाएंगे। क्यों मां?Ó रमा देवी खुशी से रोते हुए बोली, ‘हां मेरे बच्चो। तुम सभी मेरे बच्चे ही तो हो। उस घर में हमेशा-हमेशा तुम सब का स्वागत है। तुम भी जब ममता को तरसो तो बेखटके उस चौखट पर चली आना।Ó आज बरसों बाद बेला के गले से उठी तान ने उस उत्सव वाले घर को गुलज़ार करकेरख दिया। ठ्ठ