सुरभि की आंखों ने रोते-रोते पूरा तकिया भिगो दिया था। सुरभि जब से शरद को छोड़कर आई थी, रो रही थी। सुरभि पिछले दिनों से शरद से मिलने के लिए उतावली थी, क्योंकि वह चौबीस घंटे से अधिक रह ही नहीं पाती थी, शरद से मिले बिना। उसका दम घुटने लगता था, बेचैनी और घबराहट से वह टिककर बैठ नहीं पाती थी। उसकी मनपसंद पुस्तकें- क्रौंच वध, कोणार्क, नदी के द्वीप, कनुप्रिया, भी उसे बांध नहीं पाती थी, बस शरद की मुस्कान उसकी आंखों में तैरती रहती थी। हर आहट उसे शरद की आहट लगती थी।

उसी शरद से तीन दिन बाद मिलकर आई थी और फिर भी रो रही थी। सुरभि को क्रोध आ रहा था, शरद पर या वह दुखी थी, यह तो सुरभि को समझ में ही नहीं आ रहा था। सुरभि को गुस्सा क्यों न आए, उसे दुख क्यों न हो? अभी शनिवार को सुरभि ने शरद से कहा था कि शरद सोमवार को उसे यूनिवॢसटी ले जाए, उसे बहुत से काम हैं तो शरद ने कह दिया कि सोमवार का कार्यक्रम शनिवार को कैसे तय कर लें? शरद ने मना कर दिया तो यूनिवर्सिटी में सुरभि शरद की प्रतीक्षा भी नहीं कर पाई।

येन-केन-प्रकारेण शाम को शरद सुरभि को मिला तो सुरभि को अपना वृतांत सुनाने के मनोभाव के वशीभूत होने के पूर्व ही शरद ने अपने पूरे सप्ताह का कार्यक्रम सुना दिया, ‘तुम्हारा जो काम हो आज ही कर लो, आज के बाद मैं अगले सोमवार को ही मिलूंगा। ‘क्यों? सुरभि चौंक पड़ी थी, उसे तो बताया ही नहीं था शरद ने। सुरभि ने तो मंगलवार को पूरे दिन के आवश्यक कामों और थोड़ी सी अनावश्यक चहल कदमी का कार्यक्रम बना रखा था शरद के साथ।

‘क्यों? क्या? मैं बाहर का रहने वाला हूं। ‘कल कहां जा रहे हो? सुरभि ने उदास स्वर में पूछा था। ‘कल मुरादाबाद, परसो बरेली, बृहस्पतिवार को लखनऊ, शुक्र को कानपुर जाऊंगा। वहां से शनिवार की रात लौटूंगा। अब सुरभि क्या कहती? क्या शरद को पता नहीं है कि सुरभि के बहुत ढेर सारे आवश्यक काम शरद के सहारे पड़े रहते हैं। इसलिए नहीं कि सुरभि ये सारे काम अकेले कर नहीं सकती बल्कि इसलिए कि इसी बहाने उसे शरद के साथ समय बिताने को मिलता है। काम से अधिक महत्व वह शरद के साथ को देती है।

 सुरभि और जोर से रोने लगती है। सुरभि तो इसलिए नहीं बोली उससे क्योंकि अगर सुरभि बोलती तो उसके मुंह से कोई कड़वी बात निकल जाती और शरद आहत हो जाता लेकिन सुरभि के न बोलने से भी तो वह उतना ही आहत हो गया। सुरभि क्या करे?

कैसे अपना गुस्सा निकाले, न बोलकर निकाल सकती है न चुप रहकर। शरद से नाराज होना तो सुरभि का अधिकार है, शरद को इतना प्यार जो करती है, फिर सुरभि का मान भी तो है, अभिमान भी तो है। सुरभि कुछ नहीं बोली तो शरद उसे प्यार से मना तो सकता था, कह तो सकता था कि उसका बाहर रहना विवशता है। शरद ने तो आजतक कभी उसे मनाने का या उसकी नाराजगी का कारण जानने का भी यत्न नहीं किया। सुरभि का मान-अपमान कितना आहत होता है इससे। शरद तो जानता था उसेबाहर जाने की बात से ही सुरभि रूठ गई है तो उसे मना नहीं सकता था? सुरभि ही क्यों हमेशा शरद को मनाए? क्या शरद कभी सुरभि को मना नहीं सकता? यह तो सुरभि के मान का अपमान है, ह्रश्वयार का अपमान है।

मनाना तो दूर, सुरभि रूठ जाए तो शरद बस इसी बात पर रूठ जाता है कि सुरभि उससे रूठी क्यों? सुरभि का प्यार भी कैसा है, स्वयं रूठो स्वयं मान जाओ, रूठने की सजा पाओ सो अलग। शरद की भी क्या गलती? सुरभि के पहले वह मनुहार का अर्थ ही कहां जानता था। यह तो इतने प्यारे, इतने निर्मल, सहज और स्वच्छ वातावरण में रहा ही नहीं। जहां कोई उसे प्यार से मनाता हो, इसलिए रूठे को मनाने का संस्कार उसमें आया ही नहीं।

सुरभि सो जाए तो उसके पापा उसे प्यार से जगाकर मनुहार करके अपने हाथ से एक- एक कौर खिलाते हैं। शरद के साथ ऐसा तो शायद बहुत बचपन में होता होगा। जब उसके मां-पिताजी जीवित थे। उनके बाद में तो ऐसा पल उसके जीवन में आया ही नहीं होगा। शरद के साथ ऐसा क्यों हुआ? शरद तो बेइंतहा प्यार का अधिकारी है। शरद के भीतर तो प्यार का झरना है। हर दिन ही तो सुरभि उसे अपने पर झरते अनुभव करती है।

शरद के प्यार की फुहार से सुरभि का रोमरोम पुलकित हो जाता है। सुरभि का गुस्सा या दुख जो भी हो, वह फिर भी कम नहीं होता। शरद तो मेरी हर बात, हर चाहना मेरे बोलने से पहले ही जान जाता है। तो आज क्या उसे समझ में नहीं आया कि मैं क्यों चुप हो गई? सुरभि का मन इधर-उधर टहलकर वापस अपने आपके आंसुओं पर आ गया था। यदि शरद को समझ में आ गया था तो शरद ने ऐसा बहाना क्यों बनाया कि शरद को सुरभि के मन की बात समझ में नहीं आई? यह तो सुरभि की भावना को जबरन आहत करने की चेष्टा हुई। यदि सचमुच शरद को समझ में न आया हो तो, नहीं यह सुरभि नहीं सह सकती। शरद उसे समझ न सके, उसके कहने या अनकहने पर भी यह सुरभि नहीं सह सकती। शरद को उसे समझना पड़ेगा। शरद प्यार की इस कसौटी पर हमेशा खरा उतरता है। वह सुरभि को बहुत गहरे तक समझता है तभी न सुरभि को मान है अपने और शरद के बीच की आपसी समझदारी पर, फिर आज ऐसा क्यों हुआ? 

शरद कहीं खोया, किसी परेशानी में उलझा तो नहीं था? सुरभि ने अपने गुस्से के आगे आज शरद से उसके पिछले तीन दिन कैसे बीते यह भी नहीं पूछा। सुरभि से गलती हो गई। शरद अपनी परेशानियां सुरभि के सिवा किसी से नहीं कहता। सुरभि के भीतर अकुलाहट मच गई। उसने शरद से कुछ पूछा क्यों नहीं? सुरभि का मन किया तुं आंसू पोंछे और जाकर शरद से बात करे। सुरभि उठते- उठते रुक गई, ऐसी कोई बात थी तो अपने आप नहीं कह सकता था? क्या आवश्यक है, सुरभि दस बार पूछे तभी वह बताए? समझता क्या है अपने आपको? सुरभि हमेशा इतना प्यार करती है तभी उसका दिमाग खराब रहता है, सुरभि को कुछ समझता नहीं? सुरभि क्यों बात करे उससे जब उसका मन करेगा अपने आप आएगा। सुरभि नहीं रोएगी।

सुरभि उठी, मुंह धोया। ढेर सी अपनी पसंद की पुस्तकें चारों ओर बिखेर लीं। समाचारपत्र, पत्रिकाएं, दैनंदिनी, कलम सब कुछ उठा लाई। सुरभि दिखा रही थी कि वह व्यस्त है किंतु उसके कान लगे थे फोन की घंटी पर। काश बज जाए। शरद फोन कर ले। हे भगवान शरद को थोड़ी बुद्धि दे दो ना, फोन कर ले। घड़ी की सुई बढ़ती जा रही थी और सुरभि के दिल की धड़कन भी। 

सुरभि फोन मिला ही रही थी कि द्वार की घंटी बजी। सामने शरद खड़ा था। शरद के चेहरे से स्पष्ट था कि पिछले छह-सात घंटे उसने भी सुरभि की तरह बिताए हैं। वह भी अपना मान धोकर आया है। ‘क्या कर रही थीं? शरद के स्वर में प्यार और सच्चाई की मिठास थी। ‘तुम्हें फोन करने जा रही थी। ‘क्यों? ‘तुम नाराज जो थे, मेरा मन ही नहीं लग रहा था। ‘पागल। मैं कहां नाराज था, नाराज तो तुम हो गई थीं। ‘तुम मुझे बगैर पहले से बताए, बगैर मुझसे पूछे, एक सप्ताह बाहर रहने का कार्यक्रम बना लोगे तो मुझे कैसा लगेगा? ‘तुमने कुछ कहा भी? कह नहीं सकती थी? मैं इतने दिन बाहर रहा तो तुम्हें कितनी तकलीफ होगी? 

‘ये अनुभूति की बात है शरद! कही नहीं जाती। ‘और मुझे क्या सदा स्वयं को स्पष्ट करना होगा, मैं तो अनुभूति के योग्य हूं नहीं? ‘धत, ऐसा नहीं कहते। तुम तो… सबसे… प्यारे हो। सुरभि की बांहें शरद के गले में थीं। उनके बीच सिर्फ प्यार ही सच था। पिछले घंटों के मान-अभिमान पानी के बुलबुलों की तरह बुझ गए थे। प्रेम गली अति सांकरी जामें दुई न समाएं। इसका अर्थ केवल आध्यात्म या रहस्यवाद तक ही सीमित नहीं, लौकिक जगत में उतना भी है। अहं के साथ प्रेम नहीं होता। प्रेम के लिए अहं की तिलांजलि देनी पड़ती है।