25th August 2020
यह एक सच्चाई ही है कि बेटी ही बहू बनती है,चाहे वो बेटी हमारे घर से जाकर दूसरे के घर की बहू बनें या दूसरे के घर की बेटी हमारे की बहू बने
वो कहते हैं न अगर सास माँ बन जाये तो बहू बेटी बन जाती है और अगर माँ-बेटी एक हो जाये तो दुनिया की कोई ताक़त ,इस सोच को बदलने से रोक नहीं सकती.कहा भी गया है जो स्वर्ग को ही घर ले आती है वो है बेटी,और जो घर को ही स्वर्ग बना दे वो है बहू.. यह एक सच्चाई ही है कि बेटी ही बहू बनती है,चाहे वो बेटी हमारे घर से जाकर दूसरे के घर की बहू बनें या दूसरे के घर की बेटी हमारे की बहू बने.इस तरह की अच्छी सोच रखने के बावजूद समाज में एक बहुत गंदी सोच अभी ख़त्म नहीं हुई है,और वो है,बहू और बेटी में फ़र्क़ रखा जाता है.बहू के साथ अच्छा व्यवहार न करना,बहू को अपने घर की सदस्य न समझने से ज़्यादा दूसरे के घर से आने वाली बेटी समझकर उसे हर बात में ताने देना.
क्या सच में बहू बेटी है-
ये एक बहुत बड़ा सवाल है,चाहे कुछ भी कहा जाय,ऐसी कई बातें हैं ,जिनसे बहू और बेटी में फ़र्क़ समझ में आ जाता है जैसे, बेटी अगर जवाब दे तो उसे नासमझी समझ कर टाल दिया जाता है और अगर बहू कुछ कहे तो उसको ताने सुनाए जातें हैं,कि तुम्हारी माँ ने तुम्हें शिष्टता नहीं सिखाई.
बेटी देर तक सोती रहे तो कोई बात नहीं,लेकिन बहू देर तक सोती रहे तो सास का मुँह फूल जाता है.बेटी चाहे कितनी भी देर फ़ोन पर बात करे तो कहा जाता है अभी तो उसके खाने खेलने के दिन हैं लेकिन,बहू देर तक बात करे तो ,समय की बर्बादी और,बिल भरने की बात को लेकर हंगामा खड़ा कर दिया जाता है
बेटी घर में काम न करे तो लाड़ जता कर कहा जाता है "ससुराल में तो करना ही है,लेकिन बहू का काम करना अनिवार्य होता है, बेटी ससुराल में ख़ुश है तो माँ की बाँछे खिली रहती हैं लेकिन बहू ख़ुश है तो सास की छाती में शूल चुभने लगते हैं इतना ही नहीं बहू तो चाहिए कामवाली और बेटी को ससुराल ऐसा चाहिए जो उसे रानी बनाकर रखे
एक ही औरत यानि सास या फिर कोई ,इस तरह दो रंग की बात कैसे कर सकती हैं.इस तरह की सोच रखने वाले लोगों से कभी अच्छा समाज नहीं बन सकता.और अगर ऐसा ही हाल रहा तो कभी दूसरे के घर की बेटी,तो कभी हमारे घर की बेटी का जीना मुहाल हो जाएगा.
दो शब्द बेटी औरबहू के लिए भी-एक ज़माना था जब बहुओं को तो क्या बेटियो के भी साथ अच्छा सलूक नहीं किया जाता था,लेकिन अब लोगों की सोच बदली है अब लोग बेटी के जन्म पर दुखी नहीं ख़ुश होते हैं ,बेटे और बेटी की परवरिश में फ़र्क़ नहीं किया जाता.समाज में आने वाला ये बदलाव क़ाबिलेतारीफ़ है,बशर्ते बेटियों को लाड़ दुलार के साथ इस बात की भी शिक्षा दी जाय कि उन्हें ससुराल जाकर ,किस तरह ,पति और उसके घर वालों के साथ सामंजस्य स्थापित करना है? छोटी छोटी बात पर तुनकना,घर छोड़ कर चले जाना,बड़ों के साथ मुँहज़ोरी और जवाबदेही की आदतें उन्हें कहीं का नहीं रखेंगी.कोई भी रिश्ता ख़ुद नहीं टूटता,ग़लतफ़हमी और घमंड उन्हें तोड़ देता है.
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