श्रीमद्भागवदगीता को हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है.गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी है-इसके हर श्लोक में मनुष्य जीवन की हर समस्या का हल छिपा है.
जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में फँसकर किंकर्तव्य मूढ़ हो जाता है और उन समस्याओं से लड़ने के बजाय उन से भागने लगता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत के महानायक थे,अपने समक्ष आने वाली विपत्तियों से भयभीत होकर जीवन और क्षेत्रीय धर्म में निराश हो जाते हैं.युद्ध के मैदान में उन्हें भ्रम हो जाता है और वो युद्ध की आवश्यकता पर सवाल उठाते हैं.उन्होने सवाल किया हमें उनसे युद्ध क्यों करना चाहिए जो हमारे अपने हैं.भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें७०० श्लोक सुनाए,जिन्हें आज भागवद गीता के नाम से जाना जाता है.
अर्जुन की तरह ही हम भी कभी कभी अनिश्चय की स्थिति में आ जाते हैं या फिर अपनी समस्याओं से विचलित हो जाते हैं
भ्रम का कारण
भागवद गीता के अनुसार क्रोध से भ्रम पैदा होता है,भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है.जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाते हैं.जब तर्क नष्ट होते हैं तो व्यक्ति का पतन शुरू हो जाता है.ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आस्क्ती वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए.
नाश का कारण
जैसे छोटे से बीज से बड़े वृक्ष की उत्पत्ति होती है वैसे ही हमारे नाश का बीज है असद्द विचार और मिथ्या कल्पनाएँ.विचार में रचना शक्ति है,यह हमारा निर्माण या नाश कर सकती है.निर्माण और विनाश उस शक्ति के सदुपयोग और दुरुपयोग पर निर्भर करते हैं.
चिंतन और आसक्ति
जब मनुष्य किसी विषय को सुंदर और सुख का साधन समझकर उसका निरंतर चिंतन करता है तब उससे उत्पन्न होती है आसक्ति.इस आसक्ति के और अधिक बढ़ने पर वो उसकी उत्कट इच्छा या कामना का रूप लेती है जिसको पूर्ण किए बिना मनुष्य शांत नहीं बैठ सकता.यदि कामना पूर्ति के मार्ग में कोई विघ्न आता है तो उस विघ्न की ओर होने वाली प्रतिक्रिया को क्रोध कहते हैं.क्रोध का परिणाम यह होता है कि मनुष्य ,जहाँ जो वस्तु या गुण नहीं है उसे देखने लग जाता है.जिसे मोह कहते हैं.मोह का अर्थ है अविवेक.मोह स्मृति के नाश का कारण है.
असद विचारों का उत्पन्न
इस प्रकार असद विचारों से प्रारम्भ होकर आसक्ति(संग)इच्छा,क्रोध,मोह और स्मृति के नाश तक जब मनुष्य का पतन होता है तो निश्चित रूप से उसकी बुद्धि का नाश होने लगता है. विवेक में वो सामर्थ्य है जिससे हम अच्छे बुरे,धर्म अधर्म का निर्णय कर सकते हैं,लेकिन बुद्धि नाश के बाद तो मनुष्य,क्रत्य-अक्रत्य के चक्रवात में फँस कर ही रह जाता है.वोमनुष्य,कोई निर्णय नहीं ले पाता.उसमें निर्णय लेने की बुद्धि नहीं होती.ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं,उसे सुख कहाँ?
सुख की तलाश व्यर्थ
वो सभी से भी हीन व्यवहार करने लगता है,और फिर कभी जीवन में श्रेष्ठ और उच्च ध्येय को न कभी समझ सकता है और न कभी प्राप्त कर सकता है.अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान कर मनुष्य जीवन के परमपुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने योग्य नहीं रह जाता.
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