मनुष्य एक प्राकृतिक प्राणी है और उसे जीने के लिए अंतत: स्वच्छ वायु तथा जल, पोषणयुक्त खाद्यान्न पदार्थ व स्वस्थ पर्यावरण मात्र चाहिए। आज इन सभी को दांव पर लगाकर विकास के दावे किए जा रहे हैं। ये दावे न केवल खोखले हैं, वरन मानव सभ्यता के लिए विनाशकारी भी हैं।

हमारे स्वार्थपूर्ण आचरण और पर्यावरण विरोधी आदतोंके कारण आज हम एक सभ्यता के रूप में विनाश की कगार पर खड़े हैं। यदि हमने अपनी आदतों को तत्काल नहीं बदला, तो यह भारत देश सांस लेने योग्य भी नहीं रह जाएगा। कभी जिस भारत भूमि को अरण्य संस्कृति और प्रकृति के साथ अद्भुत समन्वय के लिए जाना जाता था, आज उसी भारत भूमि का वायुमंडल और पर्यावरण धूल, धुएं, प्रदूषण और दुर्गंध से भरकर रह गया है।

ऐसा मात्र इसलिए हुआ है, क्योंकि विगत तीन दशकों में अधिकांश भारतीय नागरिक अपने सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों और कर्तव्यों से विमुख हो गए हैं। हम केवल अपने स्वार्थ और आर्थिक लाभ को महत्त्व दे रहे हैं। हम यह भी भूल गए हैं कि जब यह देश और पर्यावरण ही नहीं रहेगा, तो हमारे तमाम संसाधन और संपदा हमारे किस काम आएगी?

इस सृष्टि में सभी प्राणियों का जैविक अस्तित्त्व मानवीय अहिंसा का मूल आधार है। विडंबना ही है कि एक संवेदनशील समाज के रूप में हम धीरे-धीरे स्वयं इन मूल्यों से कटते गए। मानवीय आचरण के कारण पिछले तीन दशकों में संपूर्ण विश्व की 60 प्रतिशत से अधिक जैव प्रजातियां और वनस्पतियां नष्टï हो चुकी हैं। प्रकृति का अंधाधुंध लालच और विकास के अदूरदर्शी मानकों के कारण संपूर्ण विश्व में गंभीर पारिस्थितिकीय असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई है। हम अपने लालच के कारण इस हद तक हिंसक हो गए हैं कि संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ता दिखाई पड़ रहा है।

मात्र पिछले कुछ दशकों में ही इस पृथ्वी के अनेक जीव-जंतुओं का अस्तित्त्व पूरी तरह समाप्त हो गया है। लाखों वर्ष पुरानी इस धरती पर कभी पर्यावरण संतुलन और पारिस्थितिकीय जटिलताएं उत्पन्न नहीं हुईं। आत्मकेंद्रित मनुष्य द्वारा अपनाई गई विकास की अवधारणाओं और प्रक्रियाओं के कारण मात्र तीन दशक में ही हमनें इस पृथ्वी को सांस न लेने योग्य पर्यावरण में परिवर्तित कर दिया है। मनुष्य द्वारा निर्मित विकास प्रक्रियाओं के कारण आज वन, नदियां, समुद्र तथा वायु व जल सभी कुछ खराब होता जा रहा है। विकास की अंधी दौड़ में हम यह भी भूल गए हैं कि पर्यावरण के विनाश की कीमत पर होने वाला कोई भी तथाकथित विकास वास्तव में विकास न होकर अंततोगत्वा विनाश ही सिद्घ होगा।

आज स्वार्थ और उपभोक्तावाद की आंधी में हम पूरी तरह दृष्टिïहीन हो गए हैं। हम सहज व स्वाभाविक पर्यावरणीय मूल्यों को भी भूल गए हैं। प्रकृति हमारे लिए केवल और केवल हमारे अंतहीन लालच की पूर्ति हेतु संसाधन मात्र बनकर रह गई है। हम भी पश्चिम की भोगवादी संस्कृति में डूबकर केवल और केवल आर्थिक और भौतिक विकास की होड़ में लग गए हैं। इस प्रकार के विकास को बहुत स्थिर और दूरदर्शी नहीं माना जाना चाहिए। आज हम प्रकृति और उसमें उत्पन्न असंख्य जीव-जंतुओं और वनस्पतियों को अपने ऐशो-आराम और सुविधाजनक जीवन-भोग में रास्ते का एक अवरोध मात्र मान बैठे हैं। यह प्रवृत्ति अन्यायपूर्ण और विनाशकारी है।

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